Last modified on 27 जून 2023, at 19:37

मैं क्षितिज के पार जाना चाहती हूँ / स्नेहलता स्नेह

मैं क्षितिज के पार जाना चाहती हूँ
पर धरा का द्वार मुझको रोकता है
मैं गगन का छोर पाना चाहती हूँ
पर डगर का प्यार मुझको रोकता है

जानता है तट न लहरें रुक सकेंगी
किन्तु फिर भी हर लहर को तौलता है
जानता है तरु न ये कलियाँ मिलेंगी
एक क्षण को पर मधुर रस घोलता है
मैं अमर अस्तित्व पाना चाहती हूँ
पर मरण का भार मुझको रोकता है

स्वप्न पलकों में छिपाये रवि चला था
जो बिखर कर साँझ के तट सो चले हैं
गीत की मनुहार लेकर कवि चला था
जो निलय की गूँज बन कर खो चले हैं
मैं स्वरों के पार आना चाहती हूँ
पर नयन का ज्वार मुझको रोकता है

प्रेम का प्रतिदान तो पाना सरल है
पर शलभ की राह पर चलना कठिन है
गीत करुणा के सुना देना सरल है
पर व्यथा की बूँद बन ढलना कठिन है
मैं अमर आलोक पाना चाहती हूँ
पर तिमिर अभिसार मुझको रोकता है