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मैं खबरदार न होता तो भला क्या होता / आनंद कुमार द्विवेदी

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आपसे प्यार न होता, तो भला क्या होता,
मैं गुनहगार न होता तो भला क्या होता !

चश्मे-नरगिस उठा के यूँ झुका लिया उसने
हाय इज़हार न होता, तो भला क्या होता !

हमारी आँख में सावन बसा के, भूल गए
ये इन्तजार न होता तो भला क्या होता  !

हर तरफ जिक्र है तेरी निगाहे-खंजर का,
जिगर के पार न होता, तो भला क्या होता !

आपकी आंख के ये मयकदे कहाँ जाते  ?
मैं जो मयख्वार न होता, तो भला क्या होता !

जिधर भी देखिये रुसवाइयों का रोना है
मैं खबरदार न होता तो भला क्या होता !

मैंने भी चाँद को छूने कि इज़ाज़त माँगी
आज इंकार न होता, तो भला क्या होता !

ख़्वाब ‘आनंद’ ने देखा तो वफ़ा का देखा
ख़्वाब बेकार न होता तो भला क्या होता !