भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं ख़ामोश जंगल हूँ / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
अरे ख़ामोश जंगलों!
तुम्हारी हरियाली किधर है?
कलियों से लिपटी
लताएं किधर हैं?
हवाओं से लिपटी
खुशबू किधर है?
घुंघराले बालों सी
पत्तियां किधर हैं
मोती के दाने सी
वो शहर किधर है
श्यामल मनोरम सब
छटाएं किधर हैं?
बोलते नहीं क्यों?
मुँह खोलते नहीं क्यों?
कहाँ हैं वो पंछियां?
जो पलती हैं तुम पर
जीवन अनुराग में
खेलती हैं तुम पर
तुम्हारी छटा न हंसी कुछ बची है
उदासियां उदासियां उदासियां घनी हैं
सवर्ण कवि की कल्पना में?
क्यों नहीं कल्पित हों?
समझ गया अब मैं तुम्हें
तुम जंगल नहीं दलित हो!