भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ / मदन मोहन दानिश
Kavita Kosh से
मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ ।
तुम्हारा नाम लेता जा रहा हूँ ।
गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा,
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ ।
ज़माने और कुछ दिन सब्र कर ले,
अभी तो ख़ुद से धोखे खा रहा हूँ ।
इसी दुनिया मे जी लगता था मेरा,
इसी दुनिया से अब घबरा रहा हूँ ।
बढ़ा दे लौ ज़रा तन्हाइयों की,
शबे-फुरक़त , मैं बुझता जा रहा हूँ ।
ये नादानी नहीं तो क्या है दानिश,
समझना था जिसे, समझा रहा हूँ ।