भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं खुद ज़मीन हूँ मगर ज़र्फ़ आसमान का है / मोहसिन नक़वी
Kavita Kosh से
मैं खुद ज़मीन हूँ मगर ज़र्फ़ आसमान का है
कि टूट कर भी मेरा हौसला चट्टान का है
बुरा ना मान मेरे हर्फ़ ज़हर जहर सही
मैं क्या करूँ यही जायका मेरी जुबान का है
बिछड़ते वक्त से मैं अब तलक नहीं रोयी
वो कह गया था यही वक्त इम्तिहान का है
हर एक घर पे मुसल्लत है दिल की वीरानी
तमाम शहर पे साया मेरे मकान का है
ये और बात अदालत है बे-खबर वरना
तमाम शहर में चर्चा मेरे बयान का है
असर दिखा ना सका उसके दिल में अश्क मेरा
ये तीर भी किसी टूटी हुयी कमान का है
कफस तो खैर मुकद्दर में था मगर 'मोहसिन'
हवा में शोर अभी तक मेरी उड़ान का है