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मैं गा न सकूँगा / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
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शिशिर-साँझ के मेघाडम्बरों से आच्छादित गगन-सा-
आज मेरा मन भारी है!
हरियाले खुले मैदानों में-
नदी-कछार पर टनों पवन में फरफराती-सूखती
नील-मलमली साड़ी जैसे तरल-मृदुल कंठ से
अब मैं जीवन-भर गा न सकूँगा!
अगरबत्ती की पारदर्शी, नील-नायलनी,
बलखाती धूम्रपटलियों-से
सुरभित स्वरों में
अब मैं गा न सकूँगा!
मेरे नयनतारे की किरण की पगतली में
कहीं कोई काँटा चुभ गया है!
बिजली की कौंध-कड़क से आहत-चमत्कृत
चिड़िया की नन्ही आँख-सा
मैं भीत-स्तब्ध रह गया हूँ!
मैंने जाने क्या देख लिया है!
कोई प्रचण्ड हिम-लहर सी निकल गई है मुझ पर से-
मैं काठ-मारा सा रह गया हूँ!
अब मैं दीप्त-तरल स्वर में गा न सकूँगा!