मैं गुफा में हूँ / नंदकिशोर आचार्य
मैं गुफा में हूँ
-पर मैं गुफा में हूँ क्यों
तुम क्या यह जानती हो ?
मैं छूता हूँ तुम्हारा गात
हर अंग-प्रत्यंग
कौन रहा होगा वह संगतराश !
और लो !
प्रतिमा अचानक सिहरती है
और तुम जैसे अँगड़ाई लेती हुई
उस से बाहर निकल आती हो
‘आओ मेरे साथ
मैं दिखाऊँगी तुम्हें सब कुछ
और पहुँचा भी दूँगी गुफा से बाहर
पर कुछ पूछना मत
नहीं तो ......’
लेती हुई अपने हाथ में मेरा हाथ
तुम साथ हो जाती हो
और निकाल ले चलती हो मुझे
बच्चे की तरह सँभाले
मैं तुम से बात करना,
पूछना चाहता हूँ
पर डर गया हूँ।
अच्छा, जो पूछते हैं
वे पत्थर क्यों हो जाते हैं ?
यह क्या ?
तुम ने क्या जान लिया वह जो मेरे मन में है
नहीं तो तुम अचानक मेरा हाथ छोड़ कर
कहाँ चली गयी हो ?
गुफा तो अब मुझे साफ दिखने लगी है
पर वह- जो मैं था
अपनी जगह से हिल क्यों नहीं पाता है ?
और सपना टूट जाता है।
मैं अब भी गुफा में हूँ
(1978)