भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं गौरी हूं, मैं छत्रपति हूं... / कुमार मुकुल
Kavita Kosh से
अपनी मांदों में छुपे हत्यारों
तुम देख तो रहे हो
कि कैसे लाखों लोग एक नाम के पीछे
एक विचार के पीछे खुद को
अस्तित्वहीन करने को बेचैन हैं
मैं गौरी हूं
मैं क्षत्रपति हूं
मैं गांधी हूं
यही है अमरता
अक्ल के लोथड़ों
'महामारी' की तरह फैलने वाले
मानवीय विचारों की अनंतता यही है
छिछलेे पानी में छुपी काई की तरह
उज्ज्वल आत्माओं को जो
गर्त में खींचने की बारहा तिकड़में भिड़ाते
अंधेरों में फना होते रहते हो
तुम बस पैरों के नीचे की कीच
और फिसलन हो
किसी उजाले और अमरता के बारे में
सोच ही कैसे सकते हो?