भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं चराग़ों की लवें छत से उड़ाकर देखूं / निर्मल 'नदीम'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं चराग़ों की लवें छत से उड़ाकर देखूं,
दिल भला कैसे सितारों के जलाकर देखूं।

क्या क़यामत है तुझे सामने आ कर देखूं,
कैसे देखूं मैं अगर आंख मिलाकर देखूं।

ये मेरा ज़ख़्म है जो ग़ैर ने बख़्शा है मुझे,
दिल नहीं है के इसे रोज़ दुखा कर देखूं।

वो जो मिट्टी के दिये तोड़ दिए थे मैंने,
दिन निकल आये अगर उनको जलाकर देखूं।

एक मुद्दत से कोई रंग नहीं आंखों में,
हाथ आ जाए तो ग़म अपना सजाकर देखूं।

कितने आवारा हैं अफ़लाक तुम्हें क्या मालूम,
कह रहे हो के ज़रा पांव उठाकर देखूं।

वो मेरे सामने बैठा है यही काफ़ी है,
कोई अंधा हूँ के अब हाथ लगाकर देखूं।

घर की दीवार की सीलन को ख़ुशी हो शायद,
कुछ दिनों चाहता हूँ सोग मनाकर देखूं।

जब असर ही नहीं करता है कोई ज़हर नदीम,
जी में आता है क़सम अपनी ही खा कर देखूं।