कन्धों पर लादे
जीवन भर का दर्द
जलती धूप, उड़ती हुई गर्द
मैं चलता रहता।
आँखों में चुभता रहा
काँच अभावों का
गिर-गिर जाता महल
सपनों के गाँवों का,
प्रलय की अग्नि में
मैं जलता रहता।
धुँधली संध्या के संगम पर
कितना स्नान किया!
बूँद-बूँद मिटकरके
यह जीवन जी लिया
उदासीनता का अबीर
मैं मलता रहता।
रोज टूटे प्रतिबिम्ब
हजारों सूरज के
सागर की आभा में
आए सजधजके
लहरों पर वह रूप
तिरता, खिलता रहता।
(18-2-83: विश्वमानव बरेली, 11 अगस्त 85)