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मैं चली / भव्य भसीन

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चिंतन की धारा में बहते जब मैं विचारों में खो गई,
ये भौतिक प्रकृति सारी चिन्मय हो गई।
तब संगीत के सुरों-सी सुरमई संगम स्मृति में सजी
समय की सरिता स्रवित होने लगी।
जिसमें मिलन की चिन्मय अनुभूतियाँ,
एक एक करके मानस पटल पर विराजमान हो आई।
मैं प्रेम गगन में चहचहाते,
प्रेमोद्गार रूपी पंछियों के संग उड़ने लगी।
मैं छीन लाई प्यारी पवन से सारी मस्ती उसकी।
मैं श्याम घन से मीठी बातें करती,
हृदय दामिनी से भावों की तीव्रता सीख आई।
मैं गीत की पंक्तियों सी,
सुबह की किरणों के संग नाचने लगी।
मैंने दी बधाई, मृदुल कंदराओं की ओर से
अभिसार संयोजक वर्षा को ख़ूब
और बावरी यमुना से,
सारे रंग रास के सींच आई।
तुम्हारे लिए देखो कृष्ण,
मैं अपना हृदय पूर्णतः सजा लाई
और इन्हीं भावनाओं के मध्य तुम्हारी वंशी बजी,
मेरा नाम भरा है,
मैं चली, मैं चली,
आज उनकी अंतिम पुकार आई।