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मैं चाहता हूँ कि ... / नरेन्द्र कुमार

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जब तुम विशाल सभागारों में
भाषण देते हो या
वातानुकूलित कक्ष में
सोफ़े में धँसकर
साक्षात्कार देते हुए कहते हो
कि नियति एक झूठ है
सब मेहनत और जज़्बे से होता है
मैं भी तुम्हारे साथ
कह उठता हूँ कि
सच में नियति कुछ नहीं है
एक छलावे के सिवा

मैं चाहता हूँ कि
किसान फ़सल बर्बाद होने पर
यह न कहे
कि नियति में यही बदा था
भगवान की यही इच्छा थी
उसकी जगह वह कहे कि
तुम्हारी आग उगलती चिमनियों
एवं धुआँ छोड़ती मोटरगाड़ियों ने
उसकी फ़सल बरबाद की
एसी से निकलती गर्म हवाओं ने
उसकी फ़सल समय से पहले सुखा दी
अपहृत पेड़-पौधों की रुलाई ने
कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़ ला दिया
वह पेड़ों की सूखी टहनियाँ लेकर
चढ़ दौड़े
तुम्हारे साम्राज्य पर
जमींदोज़ कर दे तुम्हारी चिमनियाँ
तोड़-ताड़ दे
गरम हवा उगलते एसी के डिब्बों को
पंचर कर दे तुम्हारी मोटरगाड़ियों के पहिये
और अन्तिम चेतावनी देकर जाए कि
तुम्हें अपने हिस्से का ही
ऐश्वर्य मिले, ठण्डक मिले
अपने हिस्से की गरमी भी तुम संभालो
सूखा, बाढ़-अकाल भी

मैं चाहता हूँ कि
औरतें ही सिर्फ रिश्ते न संभालें
नियति के अधीन !
नहीं सोचें कि
तुम मर्दों के सुख में ही
उनका सुख है
बल्कि ये कहें कि
उनके सुख में ही
तुम्हारा सुख शेष है
बलात तुम्हारी किसी भी इच्छा पर
तुम्हारा मुँह नोच लें
और न मानने पर
चुनौती दें
तुम्हारे अस्तित्व को भी

मैं चाहता हूँ कि
मज़दूर कभी ये न सोचे
कि उसकी रोटी
तुम्हारी कृपा पर मिलती रही है
उसका भाग्य तुम्हारे चरणों में ही
फलता है
बल्कि ये कहे कि
तुम चोर-डकैत हो जिसने
उनके पसीने पर धावा बोला हुआ है
उनके खून से ही तुम्हारा साम्राज्य
सींचा जा रहा है
वह दौड़े अपनी नियति को दुत्कार
चढ़ बैठे तुम्हारी छाती पर
और ठोंक दे अन्तिम कील।