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मैं चाहता हूँ जिन्हें अपनी ज़िन्दगी की तरह / शैलेश ज़ैदी
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मैं चाहता हूँ जिन्हें अपनी ज़िन्दगी की तरह।
मेरे क़रीब वो बैठे हैं अजनबी की तरह ॥
न त्याग पायेंगे हम आत्मीयता अपनी।
कि हम ज़माने में जीते हैं आदमी की तरह॥
जिन्हें समझता था मैं अपने रास्ते का दिया।
क़दम-क़दम पे वो मिलते हैं तीरगी की तरह॥
तलाश सुब्ह की थी मुझको शाम ही से मगर।
मिली जो सुब्ह तो वीराँ थी शाम ही की तरह॥
मिला न चाक गरीबाँ कोई भी गुल की तरह।
हँसा न कोई जहाँ में कभी कली की तरह॥
बहुत हसीन है दुष्यन्त की ग़ज़ल लेकिन।
मिला न दर्द उसे मेरी शायरी की तरह॥