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मैं चाहता हूँ न आएं, अज़ाब आएंगे / शहरयार
Kavita Kosh से
मैं चाहता हूँ न आएं, अज़ाब आएंगे
ये जितने लोग हैं ज़ेरे-इताब आएंगे
इस इक ख़बर से सरासीमा हैं सभी कि यहां
न रात होगी न आंखों में ख़्वाब आएंगे
ज़रा-सी देर है ख़ुशबू-ओ-रंग का मेला
खिज़ां की ज़द में अभी ये गुलाब आएंगे
हरेक मोड़ पे इक हश्र-सा बपा होगा
हरेक लम्हा नये इंक़लाब आएंगे
पलट के आये नहीं क्यों जुनूँ की वादी से
जिन्हें ये ज़ोम था वह कामियाब आएंगे।