मैं चिता की आग मैं जलती रही हूँ / मंजुला सक्सेना
मैं चिता की आग में जलती रही हूँ
जन्म लेकर भी सतत मरती रही हूँ
क्या मुझे तुम अर्ध्य दोगे ?
मेरे उर में वेदना का सिन्धु पागल
छाये रहते मन-गगन में घोर बादल ,
मुक्ति की पहली किरण की भोर दोगे ?
तोड़ कर चट्टान झरने-सी बही हूँ
उमड़ती घुमड़ती प्यासी-सी नदी हूँ
क्या मुझे तुम भावना का सिन्धु दोगे ?
रचनाकाल : 5 मई 2009
कृष्ण
जिसके मात्र स्मरण से ही हर संताप बिसर जाता है
वह तो केवल एक कृष्ण हैं !
जिसकी स्वप्न झलक पाते ही
हर आकर्षण बिखर जाता है
जो सबके दुःख का साथी है
सबका पालक, जनक, संहर्ता
वह तो केवल एक कृष्ण हैं .
साक्षी सबके पाप पुण्य का ,
न्यायमूर्ति सृष्टि का भरता ,
वह अवतार प्रेम का मधु का ,
अनघ,शोक मोह का हरता
वह तो केवल एक कृष्ण हैं
मैं सपने देखती हूँ इस जहां में कोई ऐसा छोर होगा
जहां न भीड़ होगी और न ही शोर होगा .
मधुर एकांत होगा और निर्भय शान्ति होगी
न होगी भूख और न प्यास होगी
न तू होगा न मैं ,न ही कोई संवाद होगा
धरा निशब्द होगी और गगन भी मौन होगा .
२५-२-०९
मैं भीनी रात सी इस आसमान में छ रही हूँ
कुहुक मल्हार सा उर में गगन के गा रही हूँ .
कौन कहता है सच सुना उसने ?
कौन बोला है सच ज़माने से ?
एक चुप्पी है राज़ रहती है
बात बन जाती है ज़माने में .
२५-२-०९
घास
मरती हूँ बार बार जन्म नए लेती हूँ
रुन्दती हूँ आहात हो प्राण वायु देती हूँ
अभेदानंद
तुम हो अम्बर
मैं दिगंबर
भेद कैसा नाथ !
मोक्ष हो तुम
मुक्ति हूँ मैं
ऐसा अपना साथ .
२५-२-09
धूप -दीप
तुम दीपक से जलो और में बनूँ धूप मिट जाऊं
तुम प्रकाश भर दो जीवन में मैं सुगंध बन जाऊं .
धरती के उर में ज्वाला है और देह में सुरभि
जब प्रकाश अंतर्मन में हो जीवन होता सुरभित
जीवन चन्दन वन सा महका जब उर में तुम आये
उद्भित में तेरे ही उर से, जीवन राग सुनाये .
तुम मधुबन तो मैं सुगंध,तुम बनो गीत मैं गाऊं,
मैं रचना तेरी ही तुझ में रचूँ बहूँ मिट जाऊं .
२४-२-०९
स्त्री शक्ति
मैं सगर्भा, सार्गर्भा , ब्रह्म का विस्तार ,
जीव की हूँ वासना तो विज्ञ का संसार .
शक्ति का अवतार हूँ अस्तित्व का आधार
धारिणी समभाव की कर्षण करूं अहंकार
कामिनी हूँ 'काम' की हूँ जन्मति भी राम
पुण्य रूपा पापिनी हूँ पुरुष का आयाम ,
अग्नि सी हूँ दाहका पर देती हूँ विश्राम
शव बना सकती हूँ 'शिव',माधुर्यमय घनश्याम .
२५-२-०९
कविता कन्या
कैद है कविता हर एक दिल में,डगर में
भ्रूण कन्या सी उपेक्षित हर नगर में .
'वेदना'सी मां है जब विद्रोह करती
तड़पती,तपती, तब वह है प्रसवती
कागजों पर कोई कविता कन्या सी
छूट जाती पर उपेक्षित अनसुनी सी
जब तलक प्रकाशक वर मिले न
दे उसे पहचान ,जीवन ,और मान .