भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं चुप हूँ / प्रांजलि अवस्थी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

 मैं चुप हूँ
कि तुम बोल सको
मैं सुनती हूँ
कि तुम को सुन सकूँ
शब्द सिर्फ़ बोले या कहे नहीं जाते
या सिर्फ़ सुने नहीं जाते
वो ढूँढ निकालते हैं
अपने वजूद को पनपने के लिए
 एक कोठरी
जिसमें ताउम्र वह सुने जा सकें
और बोले जा सकें
इसलिए तुम बोलो
ताकि तुम्हारे शब्द
सींखचों और दरारों से मुझमें घर बनायें
ऐसा घर जहाँ की दीवारों में
एक उम्र बीतने तलक भी चटकन ना आये
तुम वहाँ चीख चिल्ला कर
अपने आप को खाली कर सकते हो
इतना खाली जितना तुम अपने जन्म के वक्त थे
मत सोचो कि मैं क्या समझूंगी
क्या कहूंगी
 मैं सिर्फ़ चुप रहूँगी
ताकि
मैं फिर-फिर बस
तुमको बोलता सुन सकूँ