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मैं छाँव ढूँढ़ता हूँ / नागराज मंजुले / टीकम शेखावत
Kavita Kosh से
एक निर्मम दोपहरी
घूम-घामकर आ जाता है बाप
सुलगते हुए...
धूप की तरह।
सवाल पूछ रही हैं
हम बच्चों की उम्मीद भरी गीली आँखे
और उसकी आँखों से
टपक रही है ज़माने भर की धूप
जब साँस छोड़ता है
तो उड़ता है
प्रस्थापित पगडंडियों का रास्ता
बंजर व धूल भरा
तपी हुई ज़मीन की दरारें
जैसे देखती हैं आकाश को
वैसे ही बाप देखता है मेरी ओर
तब
मैं छाँव तलाशता हूँ
इस निर्धारित निराशामयी पुस्तक में!
परन्तु धीमे-धीमे
यही भ्रष्ट धूप
फैल गई है मेरे भी मस्तिष्क में
मूल मराठी से अनुवाद — टीकम शेखावत