मैं जगत को प्यार कर के / अज्ञेय
मैं जगत को प्यार कर के लौट आया!
सिर झुकाये चल रहा था, जान अपने को अकेला,
थक गये थे प्राण, बोझल हो गया जग का झमेला,
राह में जाने कहाँ कट-सा गिरा कब जाल कोई-
चुम्बनों की छाप से यह पुलक मेरा गात आया।
ओ सखे! बोलो कहाँ से तुम हुए थे साथ मेरे-
किस समय तुम ने गहे थे इस निविड में हाथ मेरे?
किन्तु दाता विनोदी यह तुम्हारी देन कैसी?
छोडऩे भव को चला था लौट घर परिणीत आया!
घुमड़ आयी है घटा, चल रही आँधी सनसनाती,
आज किन्तु कठोर उस की चोट मुझ को छू न पाती-
रण-विमुख भी आज मुझ को कवच मेरा मिल गया है-
मर्म मेरे को लपेटे है तुम्हारी स्निग्ध छाया!
राह में तुम क्यों भला आते पकडऩे हाथ मेरे?
तब रहे क्या उस जगत में भी सदा तुम साथ मेरे?
और मैं तुम को भुला कर क्षुद्र ममताएँ समेटे-
माँगता दर-दर फिरा दर-दर गया था दुरदुराया!
देख तब तुमने लिये होंगे सभी उत्पात मेरे
वासना की मार से जब झुलसते थे गात मेरे!
और फिर भी तुम झुके मुझ पर, छिपा ली लाज मेरी-
इस कुमति को साथ अपने एक आसन पर बिठाया!
प्यार का मैं था भिखारी प्यार ही धन था तुम्हारा;
मुझ मलिन को बीच पथ में अंक ले तुम ने दुलारा।
यह तुम्हारा स्पर्श या संजीवनी मैं पा गया हूँ-
असह प्राणोन्मेष से व्याकुल हुई यह जीर्ण काया।
ओठ सूखे थे, तभी था घुमड़ता अवसाद मन में,
पर तुम्हारे परस ने प्रिय भर दिया आह्लाद मन में।
टिमटिमाने में धुआँ जो दीप मेरा दे रहा था-
उमड़ उस के तृषित उर में स्नेह-पारावार आया!
मैं अनाथ भटक रहा था किन्तु आज सनाथ आया-
निज कुटीर-द्वार पर मैं प्रिय तुम्हारे साथ आया!
मैं जगत को प्यार करके लौट आया!
बडोदरा, 9 सितम्बर, 1936