भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं जब्हा सा हूँ उस दर-ए-आली-मक़ाम का / 'शोला' अलीगढ़ी
Kavita Kosh से
मैं जब्हा सा हूँ उस दर-ए-आली-मक़ाम का
काबा जहाँ जवाब न पाए सलाम का
सिक्का रवाँ है किस बुत-ए-महशर-ख़िराम का
नक़्श-ए-क़दम नगीं है क़यामत के नाम का
क्या पास-ए-ग़ैर-ए-क़सद है गर क़त्ल-ए-आम का
इक मुर्दा दूर रख दो मसीहा के नाम का
ऐ रह-रवाँ-ए-मंज़िल-ए-मक़सूद मरहबा
चमका कलस वो रौज़ा-ए-दारूस-सलाम का
ख़ंजर सँभालिये प-ए-तस्लीम ख़म हैं हम
गर्दन जवाब ले के उठेगी सलाम का
ग़श कैसा मैं तो तर्ज़-ए-तकल्लुम पे मर गया
मूसा ने कुछ भी लुत्फ़ न पाया कलाम का
मुझ से हुआ है वादा-ए-रोज़-ए-जज़ा अभी
देते हो क्या जवाब अदू के पयाम का
ऐ ‘शोला’ कह दो बुलबुल-ए-ख़ुल्द-बरीं से अब
गुलदस्ता बाँध ले मेरे रंगीं कलाम का