मैं जब भी लिखूंगी प्रेम १३ / शैलजा पाठक
तुम जीना नहीं चाहते
और मैं बिना तुम्हें जिए मरना नहीं चाहती
परेशानियों में मत तलाशो एकांत
मेरी छत टपकती है देर रात
मेरी नींद नंगे पैर भागती है तुम्हारी ओर
मैंने परतों में छुपाई है
नए शहर की वो अबूझ कहानी
जहां एक गाड़ी से पहुंचे थे तुम
दूसरी ने मिलवाया था हमें
और समय की सीटियों ने
दो गाडिय़ों को दो अलग पटरियों पर
दो अलग शहरों की ओर भेज दिया
हम कन्फर्म टिकटों पर शोक मना रहे थे
किताब के खाली पन्ने पर
जो लिखना चाहते थे तुम
वो हथेली में उभरा था
किताब का पहला सफेद पन्ना
समर्पित है उन हथेलियों के नाम
जो उलझे से बूझते रहे
हमारी तुम्हारी भाषा का फर्क
तुम मुस्कराती हो तो आंखें
गहरी और छोटी दिखती हैं
रोती हो तो उफनती नदी
हमेशा से ऐसी ही थी?
मैं हमेशा से थी भी क्या
अब तुम्हारे होने में होने लगी हूं
हल, फावड़े, खेत, बादल, बंजर हरियाली की
सारी रेखा उलझी है तुम्हारे हाथ की
हम बेतरतीबियों में लगभग भूल से गये हैं
आस पास की भीड़
भागती गाड़ी की खुली खिड़की से टिकी हमारी आंखें बंद हैं
फोन पर आवाज़ कांप रही है तुम्हारी
मैं सफेद खुले पन्ने पर
सर रख कर सोना चाहती हूं
सरसों के फूल की महक सी हथेली
हमे दूर रास्तों पर भेज देने वाली गाड़ी
लोहे की थी
हम दूब पर चलना चाहते थे एक साथ।