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मैं जब भी लिखूंगी प्रेम १ / शैलजा पाठक
Kavita Kosh से
मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
प्रेम पर कोई कविता
समय की बंजर छाती पर
कुछ उदास पत्ते गिरेंगे
जब भी याद करती हुई
देखूंगी अनंत आकाश की ओर
कायनात की पलकें बंद होंगी
कुछ सफेद मोती झरेंगे
जब भी उतारूंगी
तुम्हारे नाम का दीया
अपने शहर की नदी में
तुम्हारे मन के समंदर में
मेरी जोड़ी भर आँखें
तुम्हारे मौन किनारों से टकराएंगी
मेहंदी के सुर्ख लाल होने पर
उभरेगा प्रेम हथेली पर
देखना...
अस्त हो जायेगा सूरज...समय से पहले
लिखती रहूंगी प्रेम ताकि बचे रहें हरे पत्ते
बचे रहे सफेद कबूतर के जोड़े
धड़कती रहे धरती
तुम भी तो सुनना...सुनोगे ना?