मैं जब भी लिखूंगी प्रेम ७ / शैलजा पाठक
पहाड़ की खुरदरी छाती पर लिखूंगी प्रेम
अंगुलिया ज़ख्मी होंगी जानती हूं...पर पहाड़ धड़केगा
मैं सुनना चाहती हूं
पत्थर आवाज में पिघलता किस रंग ढलता होगा
मैं पहाड़ के निर्जन वीथियों में
प्रेम रोपना चाहती हूं
मैं नदी की कृश होती कमर पर
करधनी सा बांधना चाहती हूं प्रेम
जानती हूं...ख़त्म होती नदी का दुख बढ़ जायेगा
वो खोती सी रोती सी सिमटी सी
रेत के उदास विस्तार पर
एक रेखा भी न खींच पायेगी
अभागी तपती रेत में नहाएगी
मैं ठूंठ पेड़ की फुनगी पर
कोमल हरे पत्ते सा लिखना चाहती हूं प्रेम
मैं लहराना चाहती हूं हवा के साथ
मैं तुम्हारी हथेली पर टूट कर गिरना चाहती हूं
तुम मुझे मुट्ठी में बांध लेना, चूम लेना, थाम लेना
मैं भटकती सी पहुंची हूं तुम तक
मैं सौंपना चाहती हूं प्रेम
तुम जिंदा रखना इसे।