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मैं जब समेटती हूँ / वत्सला पाण्डेय

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मैं जब समेटती हूँ
बिखरे कुशन, उदसे सोफ़ा कवर,
बिस्तर की सलवट पड़ी चादर
सिंक में बिखरे बर्तन...
तब याद आता है
मेरे इर्द गिर्द बिखरा
तुम्हारा प्यार
तुम्हारी शर्ट की टूटी बटनों में
तुम्हारे पैंट के पायचों की उधड़ी सिलन में
सम्भालती हूँ सहेजती हूँ इसे भी
कैसे भूल जाऊं तुम्हारा दिया हुआ
भारी भरकम व्यस्तता से भरा प्यार...

मैं जब समेटती हूँ
व्हाट्सअप पर बिखरी चैट
फेसबुक पर पोस्ट रचनाये
तब याद आता है
तुम्हारा भूला प्यार
कि कैसे लिखते थे
कविता की प्रति कविता
दिलासाओ से भरे वाक्य
कैसे निभाते थे
मीलों की दूरियों के बावज़ूद
ऑन लाइन साथ
कैसे भूल जाऊं तुम्हारा दिया हुआ
ये भारी भरकम व्यस्तताओ भरा प्यार...

मुश्किल ही नहीं मेरे लिए असम्भव है
कि मैं भूल जाऊं महसूस करना
लिखना और कहना प्यार...