मैं जहाँ तक जानता हूँ / जयशंकर पाठक 'प्रदग्ध'
मैं जहाँ तक जानता हूँ,
सभ्यता के हर नए अध्याय की तुम लेखिका हो,
भूमिका हूँ मैं, अतः प्रारब्ध में है साथ चलना।
हर नए बदलाव के स्वर, जन्म पाते हैं तुम्ही से,
रूढ़ियों के गीत; आए-दिन तुम्ही से रीतते हैं।
जग-नियंता के हज़ारों तर्क तो केवल वृथा हैं-
जो तुम्हारे प्रेम के आलोक में हैं, जीतते हैं।
मैं जहाँ तक जानता हूँ,
चिर-अमावस के पटल पर प्रज्वलित तुम दीपिका हो,
मोम मेरा मन, अतः प्रारब्ध में है साथ जलना।
हर नया पाठक; असहमत है तुम्हारे हाशिये से,
हर नया खोजी; तुम्हें सर्वत्र पाकर भी भ्रमित है।
इस जगत के दूसरे, हर व्यक्ति का वैराग्य हो तुम,
इस जगत का दूसरा, हर व्यक्ति तुमसे संक्रमित है।
मैं जहाँ तक जानता हूँ,
तज रही कुंती, कभी स्वीकारती तुम राधिका हो,
कर्ण शायद मैं, अतः प्रारब्ध में है साथ सलना।
हर नयी रचना, तुम्हारे गर्भ में आकार पाती,
हर नए आकार का आकाश भी तुमने बुना है।
कौन हो तुम? प्रश्न शायद खल रहा होगा तुम्हें भी-
किन्तु यह अज्ञेय होना, स्यात् तुमने ही चुना है।
मैं जहाँ तक जानता हूँ,
वाष्प हो, जल हो, कभी तुम बर्फ़ की अट्टालिका हो,
तत्व भर हूँ मैं! अतः प्रारब्ध में है साथ ढलना।