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मैं ज़िन्दगी में कभी इस क़दर न भटका था / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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मैं ज़िन्दगी में कभी इस क़दर न भटका था
कि जब ज़मीर मुझे रास्ता दिखाता था

मशीन बन तो चुका हूँ मगर नहीं भूला
कि मेरे जिस्म में दिल भी कभी धड़कता था

वो बच्चा खो गया दुनिया की भीड़ में कब का
हसीन ख़्वाबों की जो तितलियाँ पकड़ता था

मेरा वजूद भी शामिल था उसकी मिट्टी में
मेरा भी खेत की फ़स्लों में कोई हिस्सा था
 
हमारी ज़िन्दगी थी इक तलाश पानी की
जहान रेत का ‘द्विज’! इक चमकता दरिया था