भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं ज़िन्दा हूँ! / बाल गंगाधर 'बागी'
Kavita Kosh से
कुछ कहूँ कैसे मेरी, जुबान कट गई
अभिव्यक्ति के परिन्दों के कटे पंख-सी
नहीं यह कटी नहीं है, काटा गया है
यज्ञ की वेदी पे इसे, बांटा गया है
हवन कुण्ड में जला, मशाल की तरह
इसे कई शताब्दी तक, छांटा गया है
ताकि ये बोल सकें, जुर्म के ख़िलाफ
और कभी पढ़ ना सके, वेद व पुराण
गौतम का ज्ञान, मेरे रक्त से किया दूर
जो स्याही बन सके न, जातिवाद के ख़िलाफ
कानों में पड़ा शीशा, अभी तक उबल रहा है
यज्ञ में लहू मेरा, जितना भी जल रहा है
मैं वेद की बातों को, मगर फिर भी सुन रहा हूँ
ज़मीं पे गिरे खून का, हर बूंद गिन रहा हूँ
मैं शुम्भ हूँ एक बूंद से भी, ज़िन्दा रहूँगा
तुम लड़ोगे जितना भी, मैं पीछे न हटुंगा
हर बूंद से चमकेगी, मेरी क्रांति की धार
‘बाग़ी’ तुम रुकना नहीं, तूफान बन के आज