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मैं जाग रहा होता हूँ रात रात / रवि कुमार
Kavita Kosh से
जबकि सभी लगे हैं
इमारतों की उधेड़बुन में
मैं एक बुत तराश रहा हूँ
जबकि कांटों की बाड़ का चलन
आम हो गया है
मैं महकते फूलों की
पौध तैयार कर रहा हूँ
जबकि सभी चाहतें हैं
आसमानों को नापना
मैं गहराईयों को टटोल रहा होता हूँ
यह अक्सर ही होता है
लोग समन्दर पी जाते हैं
मैं चुल्लू बनाए
झुका रह जाता हूँ
या कि जब लोग सोए होते हैं
हसीन ख़्वाबों में खोए
मैं जाग रहा होता हूँ रात रात
मैं कर रहा होता हूँ कविता