मैं जानता हूँ... / काएसिन कुलिएव / सुधीर सक्सेना
मैं जानता हूँ — बहुत कठिन है पर्वत होना
सदियों निश्चल खड़े रहना ।
मैं जानता हूँ, बोझ लगते होंगे उसे
बादल और बर्फ़ ।
तो भी यह अद्भुत्त है — यक़ीनन —
पर्वत होना शान्त और अचल ।
सिर पर और कुछ नहीं सिर्फ़
बर्फ़ और आकाश ।
कितना शानदार है धरती को निहारना
उत्तुंग हिमश्वेत शिखर से,
जहाँ उड़कर पहुँच सकती है सिर्फ़
चिड़ियाँ और सपने ।
मैं जानता हूँ — बहुत कठिन है नदी होना
जबकि सतह पर बर्फ़ जमी हो
और रास्ता बनाना हो गले-गले तक चट्टानों के बीच
सँकरे पथ में ।
मगर — यक़ीनन — अद्भुत्त है नदी होना
नदी न हो तो कौन देगा
जीव-जन्तुओं को जल —
जल जो जीवन है ।
कौन जाल में फेंकेगा
मछलियों के ढेरों उपहार;
कौन भरेगा पानी में खिलन्दड़े बच्चों
के हृदयों में उल्लास ।
मैं जानता हूँ — बहुत कठिन है भुर्ज वृक्ष होना
हर पतझड़ में पत्तियाँ गिराना,
महसूसना छाल पर कृन्तकों का कुतरना
और उसे सहना ।
तो भी अद्भुत्त है, भुर्ज होना,
जहाँ पखेरु आएँगे,
छाँव में सुस्ताएँगे प्रेमी युगल,
मध्याह्न के सूर्य के ताप के ताए
सूर्य झुलसाता है धरती को अपनी अगन में
शरद हरेगा धरती का ताप ।
काम की चीज़ है दूसरों के काम आना
अद्भुत्त पर बहुत कठिन है यह ।
सब जीते हैं अपना जीवन
जैसा जीने को जन्मे हैं :
भुर्ज — भुर्ज-सा, नदी — नदी-सी
और पहाड़ — पहाड़ों-सा
सब अपने-अपने ढब का अलबेला जीवन ।
अँग्रेज़ी से अनुवाद : सुधीर सक्सेना