भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं जानता हूँ वो नज़दीक ओ दूर मेरा था / मज़हर इमाम
Kavita Kosh से
मैं जानता हूँ वो नज़दीक ओ दूर मेरा था
बिछड़ गया जो मैं उस से क़ुसूर मेरा था
जो पाँव आए थे घर तक मिरे वो उस के थे
वो दिल बढ़ा था जो उस के हुज़ूर मेरा था
बड़ा ग़ुरूर था दोनो को हम-नवाई पर
निगाह उस की थी लेकिन सुरूर मेरा था
वो आँख मेरी थी जो उस के सामने नम थी
ख़ामोष वो था कि यौम-ए-नुशूर मेरा था
कहा ये सब ने कि जो वार थे उसी पर थे
मगर ये क्या कि बदन चूर चूर मेरा था