भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं जानता हूँ / प्रेमनन्दन
Kavita Kosh से
मैं जानता हूँ
कि सागर की लहरों पर
चित्र नहीं बनते!
मैं जानता हूँ
कि बिखरी हुई रेत से
महल नहीं बनते!
मैं जानता हूँ
कि हमारे सोचने-मात्र से
बदलती नहीं दुनिया!
मैं जानता हूँ
फिर भी कोशिश करता रहता हूँ लगातार
इस दृढ़ विश्वास और संकल्प के साथ
कि मेरा सार्थक प्रयास
बदल देगा एक दिन
लहरों को कैनवास में
रेत को शिलाओं में
सोच को हक़ीक़त में।
मैं जानता हूँ।