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मैं जानती हूं पिंजरे का पंछी क्यों गाता है / माया एंजलो

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आज़ाद पंछी सवारी करता है हवा की
उड़ता है हवा के साथ प्रवाह के थमने तक,
गोते लगाता है सूर्य-रश्मियों में
और करता है साहस
ऊँचाइयों को नापने का ।
लेकिन अपने छोटे से पिंजरे में
बेचैन घूमता पंछी शायद ही कुछ देख पाता है
अपने उन्माद की सलाखों के पार,
उसके पर कतर दिए गए हैं
बाँध दिए गए हैं उसके पैर भी
इसीलिए, वह गाता है ।

पिंजरे का पंछी गाता है कँपकँपाते स्वर में
उन अज्ञात चीज़ों के बारे में
जिनकी चाहत अभी बाक़ी है,
दूर पहाड़ी पर सुनाई देती है उसकी धुन
जब वह गाता है मुक्ति का गीत ।

आज़ाद पंछी सोचता है
ठण्डी हवा के एक और झोंके के बारे में
और पेड़ों के उच्छवास से गुज़रती
पुरवाई के बारे में,
उसे याद आते है
रश्मिप्रभा में नहाए बगीचे में रेंगते ताज़ा कीड़े
और वह पुकारता है आसमान को
अपने ही नाम से ।

पर पिंजरे का पंछी खड़ा रहता है
अपने ही सपनों की क़ब्र पर,
एक दु:स्वप्न से उपजी चीख़ पर
थरथरा उठती है उसकी परछाई भी,
उसके पर कतर दिए गए हैं
बाँध दिए गए हैं उसके पैर भी
इसीलिए, वह गाता है ।

पिंजरे का पंछी गाता है कँपकँपाते स्वर में
उन अज्ञात चीज़ों के बारे में
जिनकी चाहत अभी बाक़ी है,
दूर पहाड़ी पर सुनाई देती है उसकी धुन
जब वह गाता है मुक्ति का गीत ।