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मैं जान नहीं सकता / मिक्लोश रादनोती

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मुखपृष्ठ  » रचनाकारों की सूची  » रचनाकार: मिक्लोश रादनोती  » मैं जान नहीं सकता

मैं जान नहीं सकता कि किसी और को यह देश कैसा लगेगा, यह छोटा-सा मुल्क
आग से घिरा हुआ, मेरे लिए यह एक घर है जिसमें दूर मेरे बचपन की दुनिया
झूल रही है, जैसे तने से एक कोमल डाल फूटती है उसमें से मैं उगा
और उम्मीद करता हूँ कि एक दिन मेरा शरीर इसी मुल्क की ज़़मीन में मिल जाएगा।
यहाँ कहीं भी रहूँ हमेशा अपने घर में हूँ और जब कोई झाड़ी

मेरे पैरों पर झुकती है तो मैं उसका नाम जानता हूँ और उसके फूल का नाम भी
बता सकता हूँ। मैं लोगों को जानता हूँ और जानता हूँ इस वक़्त
वे कहाँ जा रहे हैं। और जानता हूँ गर्मी के सूर्यास्त में
इसका क्या मतलब हो सकता है कि दीवारों से लाल-सा दर्द टपके।
जो हवाबाज़ ऊपर उड़ता है उसके लिए यह देश सिर्फ एक नक्शा है।
वह नहीं जानता कि कवि वोएरोशमार्ती कहाँ रहता था।
उसके लिए इस नक्शे में कारख़ाने और नाराज़ बैरकें छिपी हुई हैं
मेरे लिए टिड्डे, बैल, गिरजाघरों के कंगूरे, भले मुलायम खेत।
वह दूरबीन के जरिए कारख़ाने और जुते खेत देखता है

मैं काँपते हुए मज़दूर देखता हूँ जिसे अपने काम का डर है
मैं जंगल देखता हूँ, गीतों से भरे बागान, अंगूर के खेत, कब्रिस्तान
और एक छोटी बहुत बूढी औरत जो कब्रों के बीच रोती जा रही है।

और ऊपर से जो रेल की पटरियाँ दिखती हैं या मशीनघर जिन्हें मिटा देना है
वह नीचे एक लाइनमैन की झोपड़ी है जिसके सामने वह खड़ा हुआ है
लाल झंडी दिखता हुआ और बच्चे उसे घेरे हुए हैं
मशीनघर के बाड़े में एक कुत्ता लोटपोट होता हुआ खेल रहा है
और वहां पार्क में मेरी पुरानी प्रेमिकाओं के कदम अब भी बने हुए हैं
उनके मीठे चुम्बन अब भी मेरे होठों पर हैं, शहद की तरह साफ।
और एक बार स्कूल जाते वक़्त सड़क के किनारे मैं एक पत्थर पर
बैठ गया था कि उस दिन इम्तहान से बच जाऊँ--
यह रहा वह पत्थर --क्या उतनी ऊँचाई से उसे देख पाते हो?
कितनी भी कोशिश करो नहीं देख सकते उसे
उसकी सारी बारीकियों के साथ--ऐसा कोई यंत्र अभी नहीं बना है।

हम गुनाहगार हैं बेशक, जैसे दूसरे देश भी हैं
हम जानते हैं कि हमने कैसे हदें तोड़ी हैं, कब कहाँ और किस तरह
लेकिन यहाँ बेगुनाह कामगार भी रहते हैं और कवि भी
और दूध पीते बच्चे जिनमें चेतना अभी जाग रही है
और उनमें दमकती है; वे उसे बचा रहे हैं, अन्धेरे तलघरों में छिपे हुए
जब तक कि शांति अपनी उंगली से इस देश को फिर से उकेर न दे
और तब वे हमारे घुटे हुए शब्दों को साफ और ऊँचे शब्दों में कहेंगे।

रात के रखवाले बदल, हम पर अपना विराट पंख फैला ले।


रचनाकाल : 17 जनवरी 1944

अंग्रेज़ी से अनुवाद : विष्णु खरे