भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं जी रहा हूँ मगर जी ज़रा नहीं लगता / कांतिमोहन 'सोज़'
Kavita Kosh से
मैं जी रहा हूं मगर जी ज़रा नहीं लगता I
नए जहां में मुझे कुछ नया नहीं लगता II
किसी दुआ में असर का यक़ीं नहीं होता,
किसी का तीर मुझे बेख़ता नहीं लगता I
मेरी पसन्द की परवा न कर मेरे हमदम,
अब इस मुक़ाम पे कुछ भी बुरा नहीं लगता I
हरेक रिन्द को हँस-हँस के जाम देता हूँ,
अगरचे सबसे ख़फ़ा हूँ ख़फ़ा नहीं लगता I
चलो कि सोज़ ज़माने से तुमको क्या लेना,
बग़ैर उसके यहाँ कुछ भला नहीं लगता II