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मैं जो लिखना चाहता था / व्योमेश शुक्ल

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आँख से अदृश्य का रिश्ता है

मुझे लगा है सारे दृश्य

अदृश्य पर परदा डालते हुए होते हैं

जो कुछ नहीं दिखा सब दृश्य में है

और नहीं दिख रहा है


विजय मोटरसाइकिल मिस्त्री की दुकान शनिवार को खुली हुई है

और उस खुले में दुकान की रविवार बन्दी

नहीं दिखाई दी लेकिन सोमवार को खुला दिख रहा है


इसका उलट लेकिन एक छुट्टी के दिन हुआ

दुकान बन्द थी

बन्द के दृश्य में दुकान अदृश्य रूप से खुली हुई थी

और लोग पता नहीं क्यों

उस दिन मज़े लेकर मोटरसाइकिल बनवा रहे थे

मेरे पास सिर्फ़ एक खचाड़ा स्कूटर है कोई मोटरसाइकिल नहीं है

लेकिन मैं भी सिगरेट पीता हुआ एक बजाज पल्सर बनवा रहा था


अदृश्य से घबड़ा कर मैं दृश्य मैं चला आया

और दोस्त से पूछने लगा इस दुकान के बारे में

तो वह बोला कि आज यह दुकान

ज़्यादा याद आ रही है क्या पता अपनी याद में खुली दुकान में

वह भी मेरी सिगरेट आधी पी रहा हो


मैंने घर आकर मन में कहा पांडिचेरी मैं वहाँ कभी नहीं गया हूँ

वहाँ का सारा स्थापत्य मैंने ख़ुद को बताया कि

पांडिचेरी शब्द की ध्वनि के पीछे है

लेकिन है जरूर


फिर मैंने एक वाक्य लिखना चाहा

लिखने पे चाह अदृश्य है शब्द दृश्य हैं

शब्द की वस्तुएँ दिखाई दे रही हैं और

जो मैं कहना चाहता था उसका कहीं पता नहीं है

वह शायद वाक्य के परदे में है

वह नहीं वह है मैं जो नहीं लिखना चाहता था वह कतई नहीं है