भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ / सगीर मलाल
Kavita Kosh से
मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ
बुलंद होता फ़ज़ा में कहीं धुआँ देखूँ
अबस है सोचनरा ला-इंतिहा के बारे में
निगाहें क्यूँ न झुका लूँ जो आसमाँ देखूँ
बहुत क़दीम है मतरूक तो नहीं लेकिन
हवा जो रेत पे लिखते हैं वो ज़बाँ देखूँ
है एक उम्र से ख़्वाहिष कि दूर जा के कहीं
मैं ख़ुद को अजनबी लोगों के दरमियाँ देखूँ
ख़याल तक न रहे राएगाँ गुज़रने का
अगर ‘मलाल’ इन आँखों को मेहरबाँ देखूँ