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मैं ढूँढ़ता हूँ जिसे वह जहाँ नहीं मिलता / कैफ़ी आज़मी
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मैं ढूँढ़ता हूँ जिसे वह जहाँ नहीं मिलता ।
नई ज़मीन नया आसमाँ नहीं मिलता ।
नई ज़मीन नया आसमाँ भी मिल जाए
नए-बशर<ref>मानव</ref> का कहीं कुछ निशाँ नहीं मिलता ।
वह तेग<ref>तलवार</ref> मिल गई जिससे हुआ है क़त्ल मेरा
किसी के हाथ का उस पर निशाँ नहीं मिलता ।
वह मेरा गाँव है वो मेरे गाँव के चूल्हे
कि जिनमें शोले तो शोले, धुआँ नहीं मिलता ।
जो इक ख़ुदा नहीं मिलता तो इतना मातम क्यों
यहाँ तो कोई मेरा हमज़बाँ नहीं मिलता ।
खड़ा हूँ कबसे मैं चेहरों के एक जंगल में
तुम्हारे चेहरे का कुछ भी यहाँ नहीं मिलता ।
(मास्को, सितम्बर 1974)
शब्दार्थ
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