भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं तिरे शहर से फिर गुज़रा था / नासिर काज़मी
Kavita Kosh से
मैं तिरे शहर से फिर गुज़रा था
पिछले सफ़र का ध्यान आया था
कितनी तेज़ उदास हवा थी
दिल का चराग़ बुझा जाता था
तेरे शहर का इस्टेशन भी
मेरे दिल की तरह सूना था
मेरी प्यासी तनहाई पर
आंखों का दरिया हंसता था
रेल चली तो एक मुसाफ़िर
मिरे सामने आ बैठा था
सचमुच तेरे जैसी आंखें
वैसा ही हंसता चेहरा था
चांदी का वही फूल गले में
माथे पर वही चांद खिला था
जाने कौन थी उसकी मंज़िल
जाने क्यों तन्हा-तन्हा था
कैसे कहूँ रूदाद सफ़र की
आगे मोड़ जुदाई का था