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मैं तुमसे ऊब न जाऊँ न बार-बार मिलो / 'सज्जन' धर्मेन्द्र
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मैं तुमसे ऊब न जाऊँ न बार-बार मिलो।
बनी रहेगी मुहब्बत, कभी कभार मिलो।
महज़ हो साथ टहलना तो आर-पार मिलो।
अगर हो डूब के मिलना तो बीच धार मिलो।
मुझे भी ख़ुद सा ही तुम बेक़रार पाओगे,
कभी जो शर्म-ओ-हया कर के तार-तार मिलो।
दिमाग़, हुस्न कभी साथ रह नहीं सकते,
इसी यक़ीन पे बन के कड़ा प्रहार मिलो।
प्रकाश, गंध, छुवन, स्वप्न, दर्द, इश्क़, मिलन,
मुझे मिलो तो सनम यूँ क्रमानुसार मिलो।