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मैं तुम्हारी प्रार्थना हूँ / प्रतिभा सक्सेना
Kavita Kosh से
स्वर मुझे दो, मैं तुम्हारी प्रार्थना हूँ .
भाव में डूबे अगम्य अगाध होकर
व्याप जाने दो हवाओं की छुअन में,
लहर में लिखती रहूँ जल वर्णमाला,
कौंध भऱ विद्युतलता के अनुरणन में
कुहू घन अँधियार व्याप्त निशीथिनी में
किसी संकल्पित सुकृत की पारणा हूँ!
शंख की अनुगूँज का अटका हुआ स्वर
घाटियों के गह्वरों में घूम-आए,
छूता अंतरिक्षों में बिला
आकाश- गंगा के तटों को चूम आए.
बहुत लघु हूँ, बहुत भंगुर हूँ भले ही,
पर किसी अपवाद की संभावना हूँ!
घंटियाँ बजने लगी हैं शिखर पर अब,
लौ कपूरी डालती फेरे चतुर्दिक्,
लहर में झंकारते अविरल मँजीरे
आरती का ताप हो जाता समर्पित,
जन्म फेरा बन भले ही रह गया,
चिर-काल की पर मैं निरंतर साधना हूँ!