मैं तुम्हारे कॉलेज अब भी जाता हूँ/ विनय प्रजापति 'नज़र'
लेखन वर्ष: २००५/२००७
जाफ़रानी आस्माँ में जब चाँद
गुलाबी बादलों के दुप्पटे ओढ़े
महकता है तो
तेरा एहसास मेरे बदन को
रुआँ-रुआँ छूने लगता है
एक अजीब मगर जानी-पहचानी ख़ुशबू
मेरी साँसों में
मेरी धड़कनों में घुलने लगती है,
तब ऐसा लगता है
तुम मेरे आस-पास हो, यहीं-कहीं…
वह पहली शाम
जब उतरी हुई शाम के साए में
हम दोनों मिले थे
पहली बार रू-ब-रू मिले थे
तुमने मुझसे पूछा था
तुम्हारे दिल में कोई ख़ुशी होगी?
मैंने कहा था
धड़कनों की जगह सन्नाटा है, सुकून है
इस सबके आगे तो
ख़ुशी बहुत छोटी चीज़ है…
मैं मन ही मन उलझा हुआ था
सैकड़ों सवाल मेरे आगे
क़तार बनाये खड़े थे,
क्या तुमसे पूछूँ, क्या न पूछूँ
कहीं तुम्हें मेरी किसी बात का बुरा लग जाये
विसाल का यह लम्हा हिज्र न हो जाये
एक यही डर-सा था मुझको…
फिर तुम्हारी बात इक मोड़ मुड़ गयी
उस एक लम्हे में ऐसा लगा
मानो किसी ने दो ज़िन्दगियों को
एक ही तागे में बुन दिया हो,
शाम अपनी रोशनी समेट रही थी,
और तुमने कहा जाओ अब
वर्ना वार्डन आ जायेगी,
फिर किसी रोज़ मिल लेंगे
यह कहते-कहते भी हम
लगभग आधे घंटे और बैठे रहे…
तुम्हारी चाय पिलाने ख़ाहिश
आज भी याद आती है,
उस दिन तो
तुम्हारे होस्टल की मेस खुली नहीं थी
फिर भी तुमने मुझसे पूछा था,
उसके बाद न हम बाहर कहीं मिले
और न कॉलेज में ही
तुम्हारा कॉलेज में यह आख़िरी साल था,
शायद बाहम बहाने कम पड़ गये थे
या तुम्हारी मम्मी ने
मेरी वो चिट्ठियाँ, वो कार्डस् देख लिए थे…
मैं तुम्हारे कॉलेज अब भी जाता हूँ
वहाँ मेरा वही पुराना दोस्त रहता है
तुम्हारे बारे में हर बार पूछता है
और मैं हर बार एक नया बहाना बना देता हूँ उससे
इस बार मिलना मुझसे
तो इक मुकम्मल मुलाक़ात मिलना
यह आधी-अधूरी मुलाक़ातें
नहीं तो सीने के दर्द को और हवा देती हैं…