जब मैं कहती हूँ
कविता तुम मेरे पसीने से उपजीं 
मेरी आत्मा में रची-बसीं 
जीवन के गड्ड-मगड्ड उतार-चढ़ावों के बीच से 
निकालती रही हो साफ़ रास्ते तक 
उसका मतलब उन सारे सम्बन्धों से होता है 
जो जीवन की हर डोर के साथ 
लिपटे हुए होते हैं क्योंकि 
वो तुम ही हो जिसने घोर-अंधकार 
और निराशा में भी छोड़ा नहीं साथ 
रही ही हो तुम जीवन की लय में 
आदिमकाल से आदमी के सफ़र में 
उसकी साँसों की तरह 
निर्बाध गति के साथ बही हो तुम 
अब 
जब कुछ सफ़ेदपोश तुम्हारे 
पढ़े जाने पर उठाएँ सवाल 
तो मैं इतनी भी कायर नहीं कि 
मुँह फेरकर खड़ी हो जाऊँ
मैं फिर ले जाऊँगी तुम्हें 
उन सब जगहों पर जहाँ-जहाँ
से तुम्हें किया गया बेदख़ल 
गाऊँगी तुम्हें उसके सामने जिसकी 
ज़िन्दगी पर पड़ गया पाला 
और उसके सामने जिसकी अनाज की बालों 
को लूट लिया गया बेईमानी से
 
वो जो बैठा है फन्दा बनाकर 
मैं जाऊँगी वहाँ उसके पास 
जिसने मटके बनाना छोड़ दिया
और बनाना चाहता है अपने 
बच्चों को बाबू क्योंकि उसे पता है 
कि अब मटकों से बुझती नहीं प्यास
 
मिट्टी को इतना उगाया पीसा और महीन 
बना दिया गया है कि वो ख़ुद 
डरती है अपने चेहरे से 
तो मैं तुम्हें गाऊँगी 
उन-उन जगहों पर जहाँ आदमी के 
हाथ में तलवार है, बन्दूकें तनी हैं 
एकदम तैयार हैं सब मरने-मारने को 
चारों तरफ आतंक और गुण्डागर्दी का साया है 
आँखों की शर्म के पर्दे तार-तार हो चुके हैं 
पूँजी का खेल अपने निकृष्टतम आचरण में है 
इस समय तुम्हारी नेक आवाज़ की 
बहुत ज़रूरत है कविता 
क्योंकि वो सिर्फ़ 
तुम ही हो जो बदल सकती हो दिशाएँ-दशाएँ
अब तुम्हें किताबों और पन्नों से उतारकर 
उठाकर गाया जाना बहुत ज़रूरी है 
और मैं 
इसे दुनिया के तमाम 
ज़रूरी और 
ख़ूबसूरत कामों की तरह करूँगी।