मैं तुम्हें सोने न दूँगा / रामेश्वर नाथ मिश्र 'अनुरोध'
मैं तुम्हें सोने न दूँगा।
मैं जागाऊँगा तुम्हें निश्श्वास लेकर,
आह भरकर नित नया विश्वास देकर,
देश की ओ सृजनधर्मी आत्माओ!
व्यर्थ सपनों में तुम्हें खोने न दूँगा।
सूर्य बनकर मैं तुम्हें प्रतिदिन छुऊँगा,
प्रबल झंझा बन तुम्हें झकझोर दूँगा,
नेह बरसाकर नयन से रात दिन
त्याग की गहरी नदी में बोर दूँगा;
मैं सजग आश्वस्ति देता हूँ अहर्निश
जो नहीं करणीय वह होने न दूँगा।
जब तलक दुश्वारियाँ हैं
देश की जनता दुखी है,
जब तलक जननायकों की
वृत्तियाँ स्वार्थोन्मुखी हैं;
मैं न हूँगा शांत, अनहद नाद बन बजता रहूँगा
देशध्वंसी शक्तियों को चैन सुख लेने न दूँगा।
जबतलक परिवारवादी शक्तियाँ सत्ता सँभाले
चाहती हैं देश के विक्रांत पौरुष को दबा लें
मैं उन्हें देता रहूँगा एक अनचाही चुनौती
फूट का फिर बीज घातक देश में बोने न दूँगा।
मैं तुम्हें सोने न दूँगा॥