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मैं तुम हो जाती हूँ / अंजू शर्मा

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तन्हाई के किन्ही खास पलों में
कभी कभी सोचती हूँ
मैं एक मल्लिका हूँ तुम्हारी कायनात की,
जिसे हर रात बदलने से बचना है सिन्ड्रेला में,
या तुम्हारे इर्द गिर्द घूमती
मैं बदल गयी हूँ, तुम्हारे उपग्रह में,
और चाँद अब दूर से ही
मुझे देखकर कुढा करता है,

या तुम उग आये हो मेरे भीतर
गुलमोहर की तरह,
मेरी हंसी अब रंगीन हो गयी है,
और सारा शहर रंगों की तलाश में
ढूँढ रहा है मेरे ठहाके

तुमसे दूर होते ही हिचकियों से
डगमगा जाते हैं गुजरते पलों के कदम
और उसके पांवों में बंधे
हमारे दिलों ने चुना है हर आहट से
अनजान बने रहना,
 
मेरी तनहा गर्म सांसों का अनुवाद है तुम्हारा नाम
जिसके हर हिज्जे से रिसती हैं हैं दर्द की बूंदे,
काश कोई तो जानता कि जाने क्यों दूर रेगिस्तान में
एकाएक तप्त हो उठे हैं रेतीले टीले,
यूँ मेरे आंसू अगर बोल सकते
तो शायद बता पाते कारण
सुनो, मछलियाँ अक्सर ये शिकायत करती हैं
समुद्र इन दिनों क्यों इतना खारा है,

मैं इस पार से उड़ाती हूँ उदासियों की धूसर चिड़ियाँ
और तुम उस पार से साधते हो
उन पर मिलन की ख्वाहिशों का निशाना,
समय की पीठ पर अपने आहों के वाष्पन
पर मैं उकेरती हूँ तुम्हारा नाम
मेरी उँगलियों की ऊष्मा
प्रतिउत्तर में पा लेती है
तुम्हारी रुधिर किसलय हथेली का साथ,

संसार के नक़्शे पर
बाहें थामकर चलते हुए
हम पार करते हैं एक एक कर सातों समुन्दर
हर एक में विसर्जित करते हैं
अपने दुःख
पीड़ा
डर
अजनबियत
संशय
चिंताएं
और सारा संकोच

मेरे क़दमों तले बिछे हैं सातों महाद्वीप,
हमारी खिलखिलाहट से
दुनिया ढक जाती है हरसिंगारों से,
मेरी आँखों में समाते हुए
मुस्कुरा देते हो तुम
जब मैं कहती हूँ दुनिया गोल नहीं
दिल के आकार की है,

तुम्हारी मुस्कुराहट से लाल हो जाते हैं
मेरी बालकनी के सफ़ेद गुलाब
और चरवाहे बजाने लगते हैं
सुदूर चरागाहों में सुरीली धुनें
हमारे एकांत के उन क्षणों पर
मुदित हो हवाएं छेडती हैं मदमाती सरगम
जिनकी ताल पर नाच उठती हैं
सुरों की सात परियां,
अपनी देह को समेटे हुए
भी हम निरंतर शामिल हैं उस नृत्य में

मैं शर्मा कर खुदको ओढना चाहती हूँ,.
मेरे बाजू मेरे बाजुओं को
पीठ पीठ को,
पैर पैरों को ढक लेते हैं
पर मेरे चेहरे को ढकता है सिर्फ तुम्हारा चेहरा,
मेरी आँखों को तुम्हारी ऑंखें,
गालों को गाल
होठों को ढक लेते हैं तुम्हारे होंठ
ठीक उसी समय मैं तुम हो जाती हूँ...