भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं तो तोरे पद पंकज की भौरी / स्वामी सनातनदेव
Kavita Kosh से
राग देशी, तीन ताल
मैं तो तोरे पद-पंकज की भौरी।
रहों सदा रति-रस में राती,
तकहुँ न कबहुँ दूसरी ओरी॥
गुनगुनाय गुनगन नित तोरे,
तजहुँ न पलहुँ चरन की कोरी।
तव पद-रति ही है मेरी निधि,
चहों न रिधि-सिधि कोउ बहोरी॥1॥
रति-रस ही है एकमात्र गति,
रसत रहों वरु कलप करोरी।
कबहुँ न थकहुँ न छकहुँ रसत रस,
अनुदिन ललक बढ़ै नित मोरी॥2॥
रसि-रसि पुहुप अनेकन भाई,
पै इत आय भई मति भोरी।
अब नहिं अनत होत गति मतिकी,
तुव रति-रस रसि भई जनु बौरी॥3॥
बाँधि-बाँधि नित खोल देत क्यों,
यही एक असमंजस मोरी।
इनही मंे अब बँधी रहों नित-
यही एक अब मोर निहोरी॥4॥