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मैं तो यहाँ हूँ (कविता) / रामदरश मिश्र

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सभी चले गये थे
मंदिर में अपनी मुरादों के चीथड़े छोड़ कर
मैं अकेले बैठा था प्रभु-मूर्ति के सामने
और बातें कर रहा था सुख-दुख की
लेकिन मूर्ति जड़ बनी रही
ऊब कर मंदिर से बाहर निकला तो देखा-
चारों ओर पुष्पित खेत खिलखिला रहे थे
चहचहाती चिड़ियों का महारास मचा था
हवाएँ खुशबू में नहा रही थीं
और जड़-चेतन की त्वचा पर
स्पंदन की कथा लिख रही थीं
पास बहती हुई नदी में
तरंगों का नर्तन और गान चल रहा था
लगता था-
धरती और आकाश के बीच संवाद हो रहा है
प्रतीत हुआ
जैसे चारों ओर एक आवाज़ गूँज रही है-
”अरे, मैं तो यहाँ हूँ, यहाँ हूँ, यहाँ हूँ“।
-8.11.2014