भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं तो साहिल पे आकर रहा ढूँढता / देवी नांगरानी
Kavita Kosh से
मैं तो साहिल पे आकर रहा ढूँढता
बाद उसके न सूझा कोई रास्ता
पार मौजों ने की मेरी कश्तीए-ग़म
देखता रह गया नाम का नाख़ुदा
चलके अपने ही दम पर सफर तय करूँ
नक्शे-पा और कब तक रहूं ढूँढता
चैन से बैठ सकता नहीं आदमी
फ़िक्रे-दुनिया लिये घूमता है सदा
इन ख़्यालों के जंगल से ‘देवी’ निकल
गुलशने-लफ्ज़ो-मा’नी के मंगल में आ