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मैं दलित नारी हूँ / बाल गंगाधर 'बागी'

हर रोज पसीना बादल जैसे बरसता है
धूप में दूध बच्चों की गर्दन में अटकता है
लेकिन वह पत्थर काटती है, दर्द के जैसे
पेट में बच्चा सर बोझा ढोते दम घुटता है

निरन्तर पत्थरों और ईंट को लाद के चलती
साड़ी में बच्चा पीठ पे कैसे, बांध के चलती?
इससे ज्यादा धारा विरुद्ध चलना क्या होगा?
ममता पीड़ा संग मर्यादा जो ठान के चलती

अस्मिता झाड़ू चलाते, कूड़े खर-पतवार बनती है
जब गाड़ियों के धुंए में गालियां, चटकार पड़ती हैं
कैसे निगाहें घूर-घूर लोगों की, तकरार करती हैं
गालियां कैसी-कैसी उन पर, धुआंधार पड़ती हैं

आटे की तरह हाथों से मैल सने जाते हैं
शौंचालय नालियों में कैसे डूबे जाते हैं
झाग में साबुन के कपड़े से मैल बहकर
धुलते हुए मुंह व कानों में घुसे जाते हैं

धूल की आंधियां, पसीने के ज्वार में बहकर
नालों की तरह भौंहे, और पलकों से बहकर
हर मौसम का पानी है, काजल के अंदर
क्या यही है, दलित नारी का सौन्दर्य?