भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मैं दिल को दुहरा भार नहीं दूँगा / रामगोपाल 'रुद्र'
Kavita Kosh से
मैं दिल को दुहरा भार नहीं दूँगा!
जो दोस्त मुझे कहते हैं कहने को,
वे ही शायद आए हैं रहने को!
मैं दो दिन का मेहमान कहूँ तो क्या?
दिन ही कितने बाक़ी हैं सहने को!
मैं दुश्मन को भी हार नहीं दूँगा!
लग गई आग जाने किसकी गलती!
ऐसे में कोई युक्ति नहीं चलती!
मैं हूँ कि स्वप्न-सा यह भी देख रहा
चल रही नाव मेरी जल में जलती!
ज्वाला को भी जलधार नहीं दूँगा!