मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री / सूरदास
राग आसावरी
मैं देख्यौं जसुदा कौ नंदन खेलत आँगन बारौ री ।
ततछन प्रान पलटि गयौ, तन-तन ह्वै गयौ कारौ री ॥
देखत आनि सँच्यौ उर अंतर, दै पलकनि कौ तारौ री ।
मोहिं भ्रम भयौ सखी उर अपनैं, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री ॥
जौ गुंजा सम तुलत सुमेरहिं, ताहू तैं अति भारौ री ।
जैसैं बूँद परत बारिधि मैं, त्यौं गुन ग्यान हमारौ री ॥
हौं उन माहँ कि वै मोहिं महियाँ, परत न देह सँभारौ री ।
तरु मैं बीज कि बीज माहिं तरु, दुहुँ मैं एक न न्यारौ री ॥
जल-थल-नभ-कानन, घर-भीतर, जहँ लौं दृष्टि पसारौ री ।
तित ही तित मेरे नैननि आगैं निरतत नंद-दुलारौ री ॥
तजी लाज कुलकानि लोक की, पति गुरुजन प्यौसारौ री ।
जिनकि सकुच देहरी दुर्लभ, तिन मैं मूँड़ उधारौं री ॥
टोना-टामनि जंत्र मंत्र करि, ध्यायौ देव-दुआरौ री ।
सासु-ननद घर-घर लिए डोलति, याकौ रोग बिचारौ री ॥
कहौं कहा कछु कहत न आवै, औ रस लागत खारौ री ।
इनहिं स्वाद जो लुब्ध सूर सोइ जानत चाखनहारौ री ॥
भावार्थ :-- (एक गोपिका कहती है-) मैंने आँगन में खेलते बालक यशोदानन्दन को (एक दिन) देखा, तत्काल ही मेरे प्राण (मेरा जीवन) बदल गया, मेरा शरीर और मन भी काला (श्याममय) हो गया । मैंने उसे देखते ही लाकर हृदय में संचित कर दिया (बैठा दिया) और पलकों का ताला लगा दिया । लेकिन सखी ! मुझे मन में बड़ा संदेह हुआ कि (मैंने बैठाया तो श्याम को, किंतु) हृदय में चारों ओर प्रकाश हो गया । जैसे गुंजा (घुँघची) से सुमेरु की तुलना हो ( मेरी अपेक्षा श्याम तो) उससे भी बहुत भारी (महान्) थे । जैसे (जल की) बूँद समुद्र में पड़ जाय, वैसे ही मेरे गुण और ज्ञान उस में लीन हो गये । पता नहीं, मैं उन में हूँ या वे मुझ में हैं? मुझे तो अब अपने शरीर की सुधि भी नहीं रहती । वृक्ष में बीज है या बीज में वृक्ष (इस उलझन से लाभ क्या ? सच तो यह है कि) दोनों में से कोई पृथक नहीं है ! (इसी प्रकार मैं श्याम से एक हो गयी । अब तो यह दशा है कि) जल, स्थल तथा आकाश में, वन में या घर के भीतर जहाँ भी दृष्टि जाती है, वहीं-वहीं मेरे नेत्रों के सम्मुख श्रीनन्दनन्दन नृत्य करते (दिखते) हैं । लोक की लज्जा, कुलीन होने का संकोच मैंने त्याग दिया । पति, गुरुजन तथा मायके (पिता के घर के लोग)जिनके संकोच से देहली देखना (द्वार तक आना) मेरे लिये दुर्लभ था, उनके बीच ही नंगे सिर घूमती हूँ (संकोचहीन हो गयी हूँ) `मेरी सासु और नंनद मुझे घर-घर लिये घूमती हैं(सबसे कहती हैं-) इसके रोग का विचार करो ।`(इसे क्या हो गया, यह बताओ तो)टोना-टोटका करती हैं, यन्त्र बाँधती हैं, मन्त्र जपती हैं और देवताओं का ध्यान करके मनौतियाँ करती है । `मैं क्या कहूँ, कुछ कहते बन नहीं पड़ता । (संसार के) दूसरे सब रस (सुख) मुझे खारे (दुःखद) लगते हैं।' सूरदास जी कहते हैं--इन (मोहन) के रूप रस के स्वाद का जो लोभी है, उसका आनन्द तो वही-- उसके चखनेवाला (उसका रसास्वाद करने वाला) ही जानता है (उस रस का वर्णन सम्भव नहीं है)।