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मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ / अशोक कुमार पाण्डेय

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माँ दुखी है
कि मुझ पर रुक जाएगा ख़ानदानी शज़रा

वशिष्ठ से शुरु हुआ
तमाम पूर्वजों से चलकर
पिता से होता हुआ
मेरे कँधो तक पहुँचा वह वंश-वृक्ष
सूख जायेगा मेरे ही नाम पर
जबकि फलती-फूलती रहेंगी दूसरी शाखायें-प्रशाखायें

माँ उदास है कि उदास होंगे पूर्वज
माँ उदास है कि उदास हैं पिता
मा उदास है कि मैं उदास नहीं इसे लेकर
उदासी माँ का सबसे पुराना जेवर है
वह उदास है कि कोई नहीं जिसके सुपुर्द कर सके वह इसे

उदास हैं दादी, चाची, बुआ, मौसी…
कहीं नहीं जिनका नाम उस शज़रे में
जैसे फ़स्लों का होता है नाम
पेड़ों का, मक़ानों का…

और धरती का कोई नाम नहीं होता…

शज़रे में न होना कभी नहीं रहा उनकी उदासी का सबब
उन नामों में ही तलाश लेती हैं वे अपने नाम
वे नाम गवाहियाँ हैं उनकी उर्वरा के
वे उदास हैं कि मिट जाएँगी उनकी गवाहियाँ एक दिन

बहुत मुश्किल है उनसे कुछ कह पाना मेरी बेटी
प्यार और श्रद्धा की ऐसी कठिन दीवार
कि उन कानों तक पहुँचते-पहुँचते
शब्द खो देते हैं मायने
बस तुमसे कहता हूं यह बात कि विश्वास करो मुझ पर ख़त्म नहीं होगा वह शज़रा
वह तो शुरु होगा मेरे बाद
तुमसे !